जियो फोन 2 से जुडी ख़ास बातें facts about jio phone-2 in hindi


हाल ही में रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने जियो फोन 2 को लॉन्च करने की घोषणा की। इस फोन की कीमत 2,999 रुपए रखी है, जिसकी बिक्री 15 अगस्त 2018 से शुरू होगी। पिछले साल भी मुकेश अम्बानी ने 4G VoLTE सपोर्ट करने वाला दुनिया का पहला फीचर फोन लॉन्च किया था, लेकिन ये फोन सिंगल सिम ही सपोर्ट करता था जबकि जियो फोन 2 ड्यूअल सिम सपोर्ट करने वाला फोन है।

ड्यूअल सिम सपोर्ट होने के साथ ही सबसे पहला सवाल आता है कि क्या इस फोन में जियो के अलावा भी किसी दूसरे ऑपरेटर की सिम इस्तेमाल की जा सकती है। इसके साथ ही और भी कई तरह के सवाल मन में आते हैं इसलिए हम आपको बताने जा रहे हैं जियो फोन 2 से जुड़े ऐसे ही 10 सवालों के जवाब…
सवाल 1: जियो फोन 2 में वॉट्सऐप चलेगा, तो क्या ये एंड्रॉयड होगा?
जवाब : नहीं, जियो फोन 2 KaiOS पर ही काम करेगा और ये एंड्रॉयड नहीं रहेगा। हालांकि इस फोन में यूट्यूब, फेसबुक और वॉट्सऐप जैसी ऐप्स काम करेंगी और यही ऐप्स पिछले साल लॉन्च हुए जियो फोन में भी आएंगी। जियो फोन 2 में ये तीनों ऐप्स प्री इंस्टॉल्ड रहेंगी।
सवाल 2: 1500 रुपए वाले जियो फोन में वॉट्सऐप, फेसबुक और यूट्यूब चलाने के लिए क्या करना होगा?
जवाब: कंपनी ने साफ कहा है कि यूट्यूब, वॉट्सऐप और फेसबुक तीनों ही ऐप्स पुराने जियो फोन में भी 15 अगस्त से सपोर्ट करेंगी। इसके लिए कंपनी की तरफ से Patch भेजा जाएगा, जिसे अपडेट करना होगा। इसके बाद माय जियो ऐप स्टोर से इन ऐप्स को डाउनलोड किया जा सकेगा।
सवाल 3: क्या जियो फोन 2 में दूसरे ऑपरेटर की सिम सपोर्ट करेगी?
जवाब : नहीं, जियो फोन 2 में भी सिर्फ जियो की सिम ही सपोर्ट करेगी। हालांकि इसको लेकर कंपनी की तरफ से अभी कुछ नहीं कहा गया है।
सवाल 4: क्या इसके लिए नया जियो सिम कार्ड खरीदना होगा?
जवाब: नहीं, जियो फोन 2 के लिए नया जियो सिम कार्ड खरीदने की जरुरत नहीं होगी। अगर आपके पास पुराना जियो सिम कार्ड है, तो उसका इस्तेमाल इसमें किया जा सकता है।
सवाल 5: जियो फोन 2 में कौनसा वॉयस असिस्टेंट है?
जवाब: जियो फोन 2 भी वॉयस असिस्टेंट के साथ आएगा, जो रिलायंस जियो ने ही डेवलप किया है।
सवाल 6: पुराना जियो फोन है, तो क्या जियो फोन 2 खरीदना सही होगा?
जवाब:अगर पुराना जियो फोन है, तो जियो फोन 2 खरीदने का कोई मतलब नहीं है। हां, लेकिन अगर आप ड्यूअल सिम वाले फीचर फोन और क्वर्टी कीपैड वाले फोन का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो ठीक है। मगर जियो फोन 2 में स्क्रीन साइज, क्वर्टी कीपैड और ड्यूअल सिम के अलावा कुछ भी एक्स्ट्रा नहीं मिल रहा है।
सवाल 7: मानसून हंगामा ऑफर के तहत 501 रुपए में कौन सा फोन मिलेगा?
जवाब: जियो ने जिस मानसून हंगामा ऑफर को पेश किया है, वो सिर्फ 1500 रुपए वाले जियो फोन के लिए ही है। इस ऑफर के तहत किसी भी ब्रांड का फीचर फोन एक्सचेंज कराके सिर्फ 501 रुपए में जियो फोन को खरीद सकते हैं। हालांकि जियो फोन 2 को 2,999 रुपए में ही खरीदा जा सकेगा।
सवाल 8: मानसून हंगामा ऑफर कब से शुरू होगा?
जवाब: मानसून हंगामा ऑफर 21 जुलाई से शुरू होगा और इसका फायदा जियो स्टोर से लिया जा सकता है।
सवाल 9: जियो फोन 2, पिछले साल लॉन्च हुए जियो फोन से बेहतर है?
जवाब: इस बारे में तो अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन जियो फोन 2 में प्रोसेसर, रैम, स्टोरेज, ओएस सब कुछ वही दिया गया है जो 1500 रुपए वाले जियो फोन में दिया गया है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जियो फोन 2 और पुराने जियो फोन की परफॉर्मेंस में शायद ही कोई अंतर दिखे।
सवाल 10: क्या जियो फोन 2 में हॉटस्पॉट मिलेगा?
जवाब: नहीं, जियो फोन 2 में भी कंपनी ने हॉटस्पॉट का फीचर नहीं दिया है। हालांकि इसमें वाई-फाई दिया गया है।

व्हिसलिंग विलेज जहां सिर्फ सीटी बजाकर एक-दूसरे को बुलाते हैं लोग



भारत में एक ऐसा गांव है जहां लोग एक दूसरे को नाम से नहीं बल्कि सीटी बजाकर बुलाते हैं। लोगों को बुलाने के लिए अलग-अलग स्टाइल में व्हिसल करते हैं। मेघालय के पूर्वी जिले खासी हिल में कांगथांन गांव है। जिसे व्हिसलिंग विलेज के नाम से भी जाना जाता है। गांव में खासी ट्राइब्स को लोग रहते हैं। गांव के हर शख्स के दो नाम होते हैं…

कांगथांन गांव के हर शख्स का दो नाम होता है। पहला हमारी और आपकी तरह ही नॉर्मल नाम और दूसरा व्हिसलिंग ट्यून नेम। गांव के लोग नॉर्मल नाम से बुलाने की बजाय व्हिसलिंग ट्यून नेम से ही बुलाते हैं। इसके लिए हर शख्स के लिए व्हिसलिंग ट्यून अलग-अलग होती है और यही अलग तरीका उनके नाम और पहचान का काम करती है। गांव में जब बच्चा पैदा होता है तो यह धुन उसको उसकी मां देती है फिर बच्चा धीरे-धीरे अपनी धुन पहचानने लगता है।

कैसे बनाते हैं धुन
कांनथांन गांव में 109 परिवार के 627 लोग रहते हैं। सभी की अपनी अलग-अलग ट्यून है। यानी गांव में कुल 627 ट्यून है। गांव के लोग यह ट्यून नेचर से बनाते हैं खासकर चिड़ियों की आवाज से नई धुन बनाते हैं। कांनथांन गांव चारों तरफ से पहाड़ों से घिरा है। इसलिए गांव के लोग कोई भी ट्यून निकालते हैं तो वो कम समय में दूर तक पहुंचती है। यानी गांव के लोगों का बातचीत का यह तरीका भी वैज्ञानिक रूप से सही है। वक्त बदलने के साथ-साथ यहां के लोग भी बदलने लगे हैं। अब यह लोग अपने ट्यून नेम को मोबाइल पर रिकॉर्ड कर उसे रिंगटोन भी बना लेते हैं।

सिंहाचलम मंदिर यहाँ पर वराह और नृसिंह अवतार का सयुंक्त रूप विराजित है माँ लक्ष्मी के साथ

आंध्रपदेश के विशाखापट्टनम से महज 16 किमी दूर सिंहाचल पर्वत पर स्थित है सिंहाचलम मंदिर। इस मंदिर भगवान नृसिंह का घर कहा जाता है। इस मंदिर की विशेषता यह है की यहाँ पर यहाँ पर भगवान् विष्णु के वराह और नृसिंह अवतार का सयुंक्त रूप है जो की माँ लक्ष्मी के साथ विराजित है। इस मंदिर की एक अन्य खासियत यह है कि यहां भगवान नृसिंह की मूर्ति पर पूरे समय चंदन का लेप होता है। केवल अक्षय तृतीया को ही एक दिन के लिए ये लेप मूर्ति से हटाया जाता है, उसी दिन लोग असली मूर्ति के दर्शन कर पाते हैं।
सिंहाचलम मंदिर
होली का त्योहार सतयुग में भक्त प्रहलाद से जुड़ा है। कहानी है कि हिरण्यकशिपु के बेटे प्रहलाद को विष्णु भक्त होने के कारण पिता ने यातनाएं दी थीं। बुआ होलिका ने उसे गोद में बैठाकर जलाने की कोशिश की लेकिन खुद जल गई। उसी प्रहलाद को हिरण्यकशिपु से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लिया था। वैसे तो भारत में भगवान नृसिंह के कई मंदिर हैं लेकिन विशाखापट्टनम में सिंहाचलम मंदिर है, इसे भगवान नृसिंह का घर कहा जाता है।
मान्यता है कि इस मंदिर को हिरण्यकशिपु के भगवान नृसिंह के हाथों मारे जाने के बाद प्रहलाद ने बनवाया था। लेकिन वो मंदिर सदियों बाद धरती में समा गया। सिंहाचलम देवस्थान की अधिकारिक वेबसाइट के अनुसार इस मंदिर को प्रहलाद के बाद पुरुरवा नाम के राजा ने फिर से स्थापित किया था। पुरुरवा ने धरती में समाए मंदिर से भगवान नृसिंह की मूर्ति निकालकर उसे फिर से यहां स्थापित किया और उसे चंदन के लेप से ढ़ंक दिया। तभी से यहां इसी तरह पूजा की परंपरा है, साल में केवल वैशाख मास के तीसरे दिन अक्षय तृतीया पर ये लेप प्रतिमा से हटाया जाता है। इस दिन यहां सबसे बड़ा उत्सव मनाया जाता है।
सिंहाचलम मंदिर की कथा | Simhachalam Temple Story In Hindi
माना जाता है राजा पुरुरवा एक बार अपनी पत्नी उर्वशी के साथ वायु मार्ग से भ्रमण कर रहे थे। यात्रा के दौरान उनका विमान किसी नैसर्गिक शक्ति से प्रभावित होकर दक्षिण के सिंहाचल क्षेत्र में जा पहुँचा। उन्होंने देखा कि प्रभु की प्रतिमा धरती के गर्भ में समाहित है। उन्होंने इस प्रतिमा को निकाला और उस पर जमी धूल साफ की। इस दौरान एक आकाशवाणी हुई कि इस प्रतिमा को साफ करने के बजाय इसे चंदन के लेप से ढाँककर रखा जाए। इस आकाशवाणी में उन्हें यह भी आदेश मिला कि इस प्रतिमा के शरीर से साल में केवल एक बार, वैशाख माह के तीसरे दिन चंदन का यह लेप हटाया जाएगा और वास्तविक प्रतिमा के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे। आकाशवाणी का अनुसरण करते हुए इस प्रतिमा पर चंदन का लेप किया गया और साल में केवल एक बार ही इस प्रतिमा से लेप हटाया जाता है।
सिंहाचलम मंदिर का महत्व | Importance Of Simhachalam Temple
आंध्रप्रदेश के विशाखापट्‍टनम में स्थित यह मंदिर विश्व के प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है। यह समुद्री तट से 800 फुट ऊँचा है और उत्तरी विशाखापट्‍टनम से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर पहुँचने का मार्ग अनन्नास, आम आदि फलों के पेड़ों से सजा हुआ है। मार्ग में राहगीरों के विश्राम के लिए हजारों की संख्या में बड़े पत्थर इन पेड़ों की छाया में स्थापित हैं। मंदिर तक चढ़ने के लिए सीढ़ी का मार्ग है, जिसमें बीच-बीच में तोरण बने हुए हैं।
शनिवार और रविवार के दिन इस मंदिर में हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। साथ ही यहाँ दर्शन करने के लिए सबसे उपयुक्त समय अप्रैल से जून तक का होता है। यहाँ पर मनाए जाने वाले मुख्य पर्व हैं वार्षिक कल्याणम (चैत्र शुद्ध एकादशी) तथा चंदन यात्रा (वैशाख माह का तीसरा दिन)।
ऐसे पहुंचे इस मंदिर तक…
  • स्थल मार्ग -विशाखापट्‍टनम हैदराबाद से 650 और विजयवाड़ा से 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान के लिए नियमित रूप से हैदराबाद, विजयवाड़ा, भुवनेश्वर, चेन्नई और तिरुपति से बस सेवा उपलब्ध है।
  • रेल मार्ग -विशाखापट्‍टनम चेन्नई-कोलकाता रेल लाइन का मुख्य स्टेशन माना जाता है। साथ ही यह नई दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता और हैदराबाद से भी सीधे जुड़ा हुआ है।
  • वायु मार्ग-यह स्थान हैदराबाद, चेन्नई, कोलकता, नई दिल्ली और भुवनेश्वर से वायु मार्ग द्वारा सीधे जुड़ा हुआ है। इंडियन एयरलाइन्स की फ्लाइट इस स्थान के लिए सप्ताह में पाँच दिन चेन्नई, नई दिल्ली और कोलकाता से उपलब्ध है।

टाइटैनिक जहाज से जुड़े रोचक तथ्य


1. टाइटैनिक अपने समय का सबसे महंगा और भव्य जहाज था। यह इंग्लैंड के साउथंप्टन से न्यूयॉर्क के सफर पर निकला था। टाइटैनिक काफी मजबूत था और उसमें सुरक्षा के बहुत सारे उपाय भी थे। इसके बावजूद वह अपनी पहली ही यात्रा में आइसबर्ग से टकराकर डूब गया।


2. यह दुर्घटना 14 अप्रैल 1912 को रात 11:40 बजे पर हुई थी और 2:20 बजे जहाज समंदर में समा गया था।
3. समुद्री इतिहास की सबसे भीषण टाइटैनिक दुर्घटना में 1,517 लोग मारे गए थे।
4. आइसबर्ग जब नजर आया, उससे मात्र 30 सेकंड पहले दिख गया होता, तो जहाज की दिशा बदली जा सकती थी और तब शायद समुद्री इतिहास की यह भीषणतम दुर्घटना नहीं हुई होती।
5. टाइटैनिक शिप में भाप निकलने के लिए 4 स्मोकस्टेक्स लगे हुए थे। ये टाइटैनिक की तस्वीरों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि उनमें से एक स्मोकस्टेक महज डेकोरेटिव पीस था, वह काम नहीं करता था। उसे सजावट के लिए लगाया गया था।
6. उस भयावह दुर्घटना की रात अटलांटिक महासागर में कैलिफोर्नियन नाम का एक और शिप तैर रहा था। वह टाइटैनिक से ज्यादा दूर भी नहीं था। लेकिन उसे सूचना मिलने में देर हो गई, इसलिए वह समय पर नहीं पहुंच पाया और ज्यादा यात्रियों को नहीं बचा पाया।
7. टाइटैनिक के दुर्घटनाग्रस्त होने से एक दिन पहले लाइफबोट ड्रिल प्रैक्टिस की जानी थी। लेकिन उसे अंतिम क्षणों में कैंसिल कर दिया गया। अगर यह ड्रिल हो जाती, तो दुर्घटना के समय लाइफबोट्स का मैनेजमेंट ज्यादा अच्छी तरह किया जा सकता था।
8. टाइटैनिक फिल्म के सबसे इमोशनल सीन्स में वह दृश्य भी शामिल है, जब आइसबर्ग से जहाज टकराने के बाद भी म्यूजिक बैंड के सदस्य परफॉर्म करते रहते हैं। असली जहाज के दुर्घटनाग्रस्त होने पर सचमुच ऐसा ही हुआ था।
9. दुर्घटना के बाद बहुत-से पैसेंजर लाइफबोट्स के जरिए जान बचाने में कामयाब रहे थे। लेकिन और भी यात्रियों की जान बच सकती थी, क्याेंकि ज्यादातर लाइफबोट्स में बहुत सारी जगहें खाली रह गई थीं।
10. यह एक दिलचस्प फैक्ट है कि असली टाइटैनिक जहाज बनाने में जितना खर्च हुआ था, उससे कहीं ज्यादा खर्च जेम्स कैमरून की फिल्म ‘टाइटैनिक’ के निर्माण में हुआ।
11. टाइटैनिक को तबाह कर देने वाला कुख्यात आइसबर्ग समुद्र में दुर्घटना होने से 2,900 साल पहले से तैर रहा था।
12. इस भीषण दुर्घटना में जहाज का एक शेफ भी बच गया था। इसका कारण बड़ा दिलचस्प है। दरअसल, उस शेफ ने टाइटैनिक के डूबने से पहले काफी शराब पी ली थी। इसकी वजह से पानी में गिरने के बाद उसके शरीर का टेम्प्रेचर बहुत कम नहीं हो पाया। यहां बता दें कि टाइटैनिक के बहुत-से यात्री डूबने के बजाय ठंडे पानी से मरे थे।
13. अमेरिका की मशहूर चॉकलेट कंपनी हर्शे चॉकलेट्स के मालिक मिल्टन हर्शे ने भी टाइटैनिक का टिकट कटाया था, लेकिन बाद में उन्होंने अपना प्लान बदल दिया। इस तरह उनकी जान संयोग से बच गई।
14. टाइटैनिक में एक जापानी यात्री भी था, जो दुर्घटना में बच गया था। लेकिन जब वह वापस जापान पहुंचा, तो उसे जहाज को छोड़कर भागने के लिए लानत दी गई। कहा गया कि उसे डूबते जहाज के साथ बने रहना चाहिए था।
15. दुनिया के इतिहास में आइसबर्ग से टकराकर टूटने वाला टाइटैनिक अकेला बड़ा जहाज है।
16. टाइटैनिक जहाज के सफर शुरू करने से पहले एक खास प्रथा भी नहीं निभाई गई। सफर की शुरुआत से पहले प्रथा के मुताबिक, जहाज पर एक तय जगह पर शराब की बोतल तोड़ी जाती थी, लेकिन टाइटैनिक के सफर शुरू करने से पहले इस परंपरा
17. टाइटैनिक शिप में 13 ऐसे जोड़े सवार थे, जो अपना हनीमून सेलिब्रेट करने के लिए यात्रा पर निकले थे।
18. टाइटैनिक में बहुत सारे ऐसे लोग भी मौजूद थे, जो असल में इसमें सफर नहीं करने वाले थे। दरअसल, कोयले की कमी टाइटैनिक के सफर में बाधा हो रही थी। इसे दूर करने के लिए व्हाइट स्टार लाइन जहाज को ओशिएनिक और एड्रियाटिक की यात्रा रद्द करनी पड़ी। व्हाइट स्टार लाइन ने अपना कोल स्टॉक और कुछ यात्रियों को टाइटैनिक पर शिफ्ट कर दिया था।
19. टाइटैनिक जहाज इंपीरियल स्टेट बिल्डिंग जितना ऊंचा था। इंग्लैंड की राजधानी लंदन में मौजूद टावर ब्रिज के बराबर लगभग इसकी ऊंचाई थी। यानी कहा जा सकता है कि इसकी ऊंचाई करीब 17 मंजिला इमारत के बराबर थी। वहीं, इस जहाज की लंबाई फुटबॉल के तीन मैदानों के बराबर थी।
20. जहाज में रोज 800 टन कोयले की खपत होती थी।
21. टाइटैनिक में लगी सीटी की आवाज को 11 मील की दूरी तक सुना जा सकता था।
22. टाइटैनिक शिप पर 9 कुत्ते थे, लेकिन शिप पर एक भी बिल्ली मौजूद नहीं थी। मान्यताओं के मुताबिक, शिप पर बिल्लियों को रखना अच्छा माना जाता है। इनसे बाधाएं टलती हैं और साथ ही, ये शिप पर छोटे जानवरों जैसे चूहे और गिलहरियों की संख्या भी कम करती हैं।
23. टाइटैनिक शिप में यात्रियों और क्रू मेंबर्स के खाने का अच्छा-खासा इंतज़ाम था। जहाज पर खाने के लिए 86,000 पाउंड मीट, 40,000 अंडे, 40 टन आलू, 3,500 पाउंड प्याज, 36,000 सेब और 1,000 पावरोटी के पैकेट के साथ कई तरह के खाने का सामान मौजूद था।
24. टाइटैनिक शिप में फर्स्ट क्लास में सफर करने के लिए आज से करीब सौ साल पहले 4,350 डॉलर (करीब 2 लाख 70 हजार रुपए) चुकाने पड़ते थे। वहीं, सेकंड क्लास के लिए 1,750 डॉलर ( करीब 1 लाख रुपए) और थर्ड क्लास के लिए 30 डॉलर (करीब दो हजार रुपए) की रकम चुकानी पड़ती थी। आज के वक्त में डॉलर की कीमत को देखा जाए, तो एक यात्री को 50 लाख रुपए खर्च कर इसमें सफर करने का मौका मिलता।
25. टाइटैनिक शिप के कैप्टन स्मिथ इस यात्रा के बाद रिटायरमेंट लेने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन ये सफर ही उनकी जिंदगी का आखिरी सफर साबित हो गया।
26. जहाज में 900 टन भारी बैग और बाकी माल रखा था।
27. जहाज पर रोजाना 14,000 गैलन पानी का इस्तेमाल होता था।
28. 16 लाइफ बोट इस्तेमाल करने में करीब 80 मिनट लग गए। पहली लाइफ बोट में केवल 28 लोग बैठे, क्योंकि बाकी लोगों को लगा ही नहीं की जहाज डूब सकता हैं।
29. टाइटैनिक जब डूबा, तो वो अपने सफर के चौथे दिन में था। जमीन से करीब 600 किलोमीटर दूर।
30. टाइटैनिक को उस चट्टान से टकराने से पहले छह चेतावनी मिली थी।

निर्जला एकादशी व्रत में क्या करें, क्या ना करें


ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी के नाम से जाना जाता है। निर्जला एकादशी को भीमसेनी एकादशी या पांडव एकादशी भी कहते है। निर्जला एकादशी का व्रत अन्य सभी एकादशी के व्रत से कठिन होता है क्योंकि इसमें भोजन के साथ-साथ पानी का भी त्याग करना पड़ता हैं। भरी गर्मी में आने वाले इस व्रत में बिना जल के रहना पड़ता है इसलिए इसे निर्जला एकादशी कहते है।चूँकि निर्जला एकादशी का व्रत कठिन है इसलिए इस व्रत का फल भी अधिक है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहाँ गया है कि विधिपूर्वक निर्जला एकादशी का व्रत करने से अन्य सभी एकादशियों के बराबर फल प्राप्त होता है।

निर्जला एकादशी व्रत कथा | Nirjala Ekadashi Vrat Katha 
एक बार जब महर्षि वेदव्यास पांडवों को चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प करा रहे थे। तब महाबली भीम ने उनसे कहा- पितामह। आपने प्रति पक्ष एक दिन के उपवास की बात कही है। मैं तो एक दिन क्या, एक समय भी भोजन के बगैर नहीं रह सकता- मेरे पेट में वृक नाम की जो अग्नि है, उसे शांत रखने के लिए मुझे कई लोगों के बराबर और कई बार भोजन करना पड़ता है। तो क्या अपनी उस भूख के कारण मैं एकादशी जैसे पुण्य व्रत से वंचित रह जाऊंगा?
तब महर्षि वेदव्यास ने भीम से कहा- कुंतीनंदन भीम ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की निर्जला नाम की एक ही एकादशी का व्रत करो और तुम्हें वर्ष की समस्त एकादशियों का फल प्राप्त होगा। नि:संदेह तुम इस लोक में सुख, यश और मोक्ष प्राप्त करोगे। यह सुनकर भीमसेन भी निर्जला एकादशी का विधिवत व्रत करने को सहमत हो गए और समय आने पर यह व्रत पूर्ण भी किया। इसलिए वर्ष भर की एकादशियों का पुण्य लाभ देने वाली इस श्रेष्ठ निर्जला एकादशी को पांडव एकादशी या भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है।
निर्जला एकादशी व्रत में क्या करें-
  • भगवान विष्णु की पूजा करें।
  • किसी भी स्थिति में पाप कर्म से बचें अर्थात पाप न करें।
  • माता पिता और गुरु का चरण स्पर्श करें।
  • श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें।
  • श्री रामरक्ष स्तोत्र का पाठ करें।
  • श्री रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड का पाठ करें।
  • धार्मिक पुस्तक का दान करें।
  • यह महीना गर्मी का होता है इसलिए प्याऊ की व्यवस्था करें।
  • अपने घर की छत पे पानी से भरा पात्र अवश्य रखें।
  • श्री कृष्ण की उपासना करें।
निर्जला एकादशी व्रत में क्या न करें-
  • अन्न किसी कीमत पे ग्रहण न करें।
  • निन्दा न करें।
  • माता पिता और गुरु का अपमान न करें।
  • घर में चावल न पकाएं।
  • गन्दगी मत होने दें।
  • दिन में मत सोएं।

Parama Ekadashi | परमा एकादशी | व्रत कथा | व्रत विधि | महत्व


अधिकमास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को परमा एकादशी कहते हैं। वैसे तो प्रत्येक वर्ष 24 एकादशियां होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है, तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। अधिकमास में 2 एकादशियां होती हैं, जो पद्मिनी एकादशी (शुक्ल पक्ष) और परमा एकादशी (कृष्ण पक्ष) के नाम से जानी जाती हैं।

परमा एकादशी व्रत कथा |Parama Ekadashi Vrat Katha In Hindi 
काम्पिल्य नगरी में सुमेधा नाम का एक अत्यंत धर्मात्मा ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री अत्यंत पवित्र तथा पतिव्रता थी। किसी पूर्व पाप के कारण वह दंपती अत्यंत दरिद्रता का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
ब्राह्मण को भिक्षा मांगने पर भी भिक्षा नहीं मिलती थी। उस ब्राह्मण की पत्नी वस्त्रों से रहित होते हुए भी अपने पति की सेवा करती थी तथा अतिथि को अन्न देकर स्वयं भूखी रह जाती थी और पति से कभी किसी वस्तु की मांग नहीं करती थी। दोनों पति-पत्नी घोर निर्धनता का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
एक दिन ब्राह्मण अपनी स्त्री से बोला- ‘हे प्रिय! जब मैं धनवानों से धन की याचना करता हूँ तो वह मुझे मना कर देते हैं। गृहस्थी धन के बिना नहीं चलती, इसलिए यदि तुम्हारी सहमति हो तो मैं परदेस जाकर कुछ काम करूं, क्योंकि विद्वानों ने कर्म की प्रशंसा की है।’
ब्राह्मण की पत्नी ने विनीत भाव से कहा- ‘हे स्वामी! मैं आपकी दासी हूं। पति अच्छा और बुरा जो कुछ भी कहे, पत्नी को वही करना चाहिए। मनुष्य को पूर्व जन्म में किए कर्मों का फल मिलता है। सुमेरु पर्वत पर रहते हुए भी मनुष्य को बिना भाग्य के स्वर्ण नहीं मिलता। पूर्व जन्म में जो मनुष्य विद्या और भूमि दान करते हैं, उन्हें अगले जन्म में विद्या और भूमि की प्राप्ति होती है। ईश्वर ने भाग्य में जो कुछ लिखा है, उसे टाला नहीं जा सकता।
यदि कोई मनुष्य दान नहीं करता तो प्रभु उसे केवल अन्न ही देते हैं, इसलिए आपको इसी स्थान पर रहना चाहिए, क्योंकि मैं आपका विछोह नहीं सह सकती। पति बिना स्त्री की माता, पिता, भाई, श्वसुर तथा सम्बंधी आदि सभी निंदा करते हैं, हसलिए हे स्वामी! कृपा कर आप कहीं न जाएं, जो भाग्य में बदा होगा, वह यहीं प्राप्त हो जाएगा।’
स्त्री की सलाह मानकर ब्राह्मण परदेश नहीं गया। इसी प्रकार समय बीतता रहा। एक बार कौण्डिन्य ऋषि वहां आए।
ऋषि को देखकर ब्राह्मण सुमेधा और उसकी स्त्री ने उन्हें प्रणाम किया और बोले- ‘आज हम धन्य हुए। आपके दर्शन से आज हमारा जीवन सफल हुआ।’ ऋषि को उन्होंने आसन तथा भोजन दिया। भोजन देने के बाद पतिव्रता ब्राह्मणी ने कहा- ‘हे ऋषिवर! कृपा कर आप मुझे दरिद्रता का नाश करने की विधि बतलाइए। मैंने अपने पति को परदेश में जाकर धन कमाने से रोका है। मेरे भाग्य से आप आ गए हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अब मेरी दरिद्रता शीघ्र ही नष्ट हो जाएगी, अतः आप हमारी दरिद्रता नष्ट करने के लिए कोई उपाय बताएं।
ब्राह्मणी की बात सुन कौण्डिन्य ऋषि बोले- ‘हे ब्राह्मणी! मल मास की कृष्ण पक्ष की परम एकादशी के व्रत से सभी पाप, दुख और दरिद्रता आदि नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह धनवान हो जाता है। इस व्रत में नृत्य, गायन आदि सहित रात्रि जागरण करना चाहिए।
भगवान शंकर ने कुबेरजी को इसी व्रत के करने से धनाध्यक्ष बना दिया था। इसी व्रत के प्रभाव से सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को पुत्र, स्त्री और राज्य की प्राप्ति हुई थी।’
तदुपरांत कौण्डिन्य ऋषि ने उन्हें एकादशी के व्रत का समस्त विधान कह सुनाया। ऋषि ने कहा- ‘हे ब्राह्मणी! पंचरात्रि व्रत इससे भी ज्यादा उत्तम है। परम एकादशी के दिन प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर विधानपूर्वक पंचरात्रि व्रत आरम्भ करना चाहिए। जो मनुष्य पांच दिन तक निर्जल व्रत करते हैं, वे अपने मा-पिता और स्त्री सहित स्वर्ग लोक को जाते हैं। जो मनुष्य पांच दिन तक संध्या को भोजन करते हैं, वे स्वर्ग को जाते हैं। जो मनुष्य स्नान करके पांच दिन तक ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, वे समस्त संसार को भोजन कराने का फल पाते हैं। जो मनुष्य इस व्रत में अश्व दान करते हैं, उन्हें तीनों लोकों को दान करने का फल मिलता है। जो मनुष्य उत्तम ब्राह्मण को तिल दान करते हैं, वे तिल की संख्या के बराबर वर्षो तक विष्णुलोक में वास करते हैं। जो मनुष्य घी का पात्र दान करते हैं, वह सूर्य लोक को जाते हैं। जो मनुष्य पांच दिन तक ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हैं, वे देवांगनाओं के साथ स्वर्ग को जाते हैं। हे ब्राह्मणी! तुम अपने पति के साथ इसी व्रत को धारण करो। इससे तुम्हें अवश्य ही सिद्धि और अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
कौण्डिन्य ऋषि के वचनानुसार ब्राह्मण और उसकी स्त्री ने परम एकादशी का पांच दिन तक व्रत किया। व्रत पूर्ण होने पर ब्राह्मण की स्त्री ने एक राजकुमार को अपने यहां आते देखा।
राजकुमार ने ब्रह्माजी की प्रेरणा से एक उत्तम घर जो कि सब वस्तुओं से परिपूर्ण था, उन्हें रहने के लिए दिया। तदुपरांत राजकुमार ने आजीविका के लिए एक गांव दिया। इस प्रकार ब्राह्मण और उसकी स्त्री इस व्रत के प्रभाव से इहलोक में अनंत सुख भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गए।
परमा एकादशी व्रत विधि | Parma Ekadashi Vrat Vidhi In Hindi
एकादशी व्रत करने वाले व्यक्ति को एकाद्शी के दिन प्रात: उठना चाहिए । प्रात:काल की सभी क्रियाओं से मुक्त होने के बाद मिट्टी, तिल, कुश और आंवले के लेप के साथ स्नान करना चाहिए । इस स्नान को किसी पवित्र नदी, तीर्थ या सरोवर अथवा तालाब पर करना चाहिए । स्नान करने के बाद साफ वस्त्र धारण करने चाहिए । व्रत करने वाले को घी का दीपक जलाकर फल, फूल, तिल, चंदन एवं धूप जलाकर भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए । इस व्रत में विष्णु सहस्रनाम एवं भगवान विष्णु के अन्य स्तोत्रों का पाठ करने का बड़ा महत्व होता है । व्रत करने वाले को जब भी समय मिले इनका पाठ अवश्य करना चाहिए । सात्विक भोजन करना चाहिए, भोजन में मसूर, चना, शहद, शाक और मांगा हुआ भोजन नहीं करना चाहिए ।
परमा एकादशी व्रत महत्व | Importance Of Parama Ekadashi Vrat
जो मनुष्य परम एकादशी का व्रत करता है, उसे सभी तीर्थों व यज्ञों आदि का फल प्राप्त होता है। जिस प्रकार संसार में दो पैरों वालों में ब्राह्मण, चार पैरों वालों में गौ, देवताओं में देवेंद्र श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार मासों में अधिक (लौंद) मास उत्तम है। इस माह में पंचरात्रि अत्यंत पुण्य देने वाली होती है। इस माह में पद्मिनी और परम एकादशी भी श्रेष्ठ है। इनके व्रत से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, अतः दरिद्र मनुष्य को एक व्रत जरूर करना चाहिए। जो मनुष्य अधिक मास में स्नान तथा एकादशी व्रत नहीं करते, उन्हें आत्महत्या करने का पाप लगता है। यह मनुष्य योनि बड़े पुण्यों से मिलती है, इसलिए मनुष्य को एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए।

तुलसी विवाह कथा


सावर्णि मुनि की पुत्री तुलसी अपूर्व सुंदरी थी। उनकी इच्छा थी कि उनका विवाह भगवान नारायण के साथ हो। इसके लिए उन्होंने नारायण पर्वत की घाटी में स्थित बदरीवन में घोर तपस्या की। दीर्घ काल तक तपस्या के उपरांत ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर दर्शन दिया और वर मांगने को कहा।
तुलसी ने कहा- “सृष्टिकर्ता ब्रह्मदेव ! आप अन्तर्यामी है। सबके मन की बात जानते है, फिर भी मैं अपनी इच्छा बताती हूं। मैं चाहती हूं कि भगवान श्री नारायण मुझे पति रूप में मिले।”
ब्रह्मा ने कहा-“तुम्हारा अभीष्ट तुम्हें अवश्य मिलेगा। अपने पूर्व जन्म में किसी अपराध के कारण तुम्हें शाप मिला है। इसी प्रकार भगवान श्री नारायण के एक पार्षद को भी दानव-कुल में जन्म लेने का शाप मिला है। दानव कुल में जन्म ने के बाद भी उसमे नारायण का अंश विद्यमान रहेगा। इसलिए इस जन्म में पूर्व जन्म के पाप के शमन के लिए सम्पूर्ण नारायण तो नहीं, नारायण के अंश से युक्त दानव-कुल जन्मे उस शापग्रस्त पार्षद से तुम्हारा विवाह होगा। शाप-मुक्त होने पर भगवान श्री नारायण सदा सर्वदा के लिए तुम्हारे पति हो जायेंगे।”
तुलसी ने ब्रह्मा के इस वर को स्वीकार किया, क्योंकि मानव-कुल में जन्म के कारण उसे मायावी भोग तो भोगना ही था। तुलसी बदरीवन में ही रहने लगी। नारायण का वह पार्षद दानव कुल में शंखचूड़ के नाम से पैदा हुआ था। कुछ दिनों के बाद वह भ्रमण करता हुआ बदरीवन में आया। यहां तुलसी को देखते ही वह उस पर मुग्ध हो गया। तुलसी के सामने उसने अपने साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। इतने में ही वहां ब्रह्मा जी आ गए और तुलसी से कहा-“तुलसी ! शंखचूड़ को देखो, कैसा देवोपम इसका स्वरूप है। दानव कुल में जन्म लेने के बाद भी लगता है जैसे इसके शरीर में नारायण का वास हो। तुम प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लो।”
तुलसी को भी लगा कि उसकी तपस्या पूर्ण हुई। उसे इच्छित फल मिला है। शंखचूड़ के साथ उसका गांधर्व-विवाह हो गया और वह शंखचूड़ के साथ उसके महल में पत्नी बनकर आ गई।
शंखचूड़ ने अपनी परम सुंदरी सती साध्वी पत्नी तुलसी के साथ बहुत दिनों तक राज्य किया। उसने अपने राज्य का इतना विस्तार किया कि देवलोक तक उसके अधिकार में आ गया। स्वर्ग का सुख भोगने वाले देवताओं की दशा भिखारियों जैसे हो गई। शंखचूड़ किसी को कष्ट नहीं देता था, पर अधिकार और राज्य छिन जाने से सारे देवता मिलकर ब्रह्मा,विष्णु और शिव की सभा में गए तथा अपनी विपत्ति सुनाई।
ब्रह्मा जी ने कहा-“तुलसी परम साध्वी है। उसका विवाह शंखचूड़ से मैंने ही कराया था। शंखचूड़ को तब तक नहीं हराया या मारा जा सकता है जब तक तुलसी को न छला जाए।”
विष्णु ने कहा -“शंखचूड़ पूर्व जन्म में मेरा पार्षद था। शाप के कारण उसे दैत्यकुल में जन्म लेना पड़ा। इस जन्म में भी मेरा अंश उसमे व्याप्त है। साथ ही तुलसी के पतिव्रत-धर्म से वह अजेय है।”
फिर देवताओं की सहमति से भगवान शिव ने शंखचूड़ के पास सन्देश भेजा कि या तो वह देवताओं का राज्य लौटा दे, या फिर उनसे युद्ध करे।
शंखचूड़ शंकर के पास पहुंचा। उसने कहा-“देवाधिदेव ! आपके लिए देवताओं का पक्ष लेना उचित नहीं है। राज्य बढ़ाना हर राजा का कर्तव्य है। मैं किसी को दुखी नहीं कर रहा हूं। देवताओं से कहिए वे मेरी प्रजा होकर रहे। मैंने आपका भी कोई अपकार नहीं किया है। हमारा आपका युद्ध शोभा नहीं देता। अगर आप हार गए तो बड़ी लज्जा की बात होगी। मैं हार गया तो आपकी कीर्ति बहुत अधिक नहीं बढ़ेगी।”
भगवान शंकर हंसे। वे तो सब रहस्य समझते थे। तुलसी और शंखचूड़ के पूर्व-जन्म के शाप की अवधि लगभग पूरी हो चुकी थी। बोले- “इसमें कीर्ति और लज्जा की बात नहीं। तुम देवों का राज्य लौटाकर उन्हें उनके पद पर प्रतिष्ठित होने दो। युद्ध से बचने का यही एक उपाय है। ”
शंखचूड़ ने कहा-“मैंने युद्ध के बल से देवलोक जीता है। कोई उसे युद्ध के द्वारा ही वापस ले सकता है। यह मेरा अंतिम उत्तर है। मैं जा रहा हूं।”
ऐसा कहकर शंखचूड़ चला गया। उसने अपनी पत्नी तुलसी को सारी बात बताई और कहा-“कर्म-भोग सब काल-सूत्र में बंधा है। जीवन में हर्ष, शोक, भय, सुख-दुःख, मंगल-अमंगल काल के अधीन है। हम तो केवल निमित्त है। सम्भव है, भगवान शिव देवों का पक्ष लेकर मुझसे युद्ध करे। तुम चिंता मत करना। तुम्हारा सती तेज मेरी रक्षा करेगा।”
दूसरे दिन भगवान शंकर के नेतृत्व में देवताओं ने युद्ध छेड़ दिया। शंखचूड़ ने भीषण वाणों की वर्षा कर उनका वेग रोका। उसके प्रहार से देवता डगमगाने लगे। उसने दानवी शक्ति का प्रयोग कर मायावी युद्ध आरम्भ किया। युद्ध स्थल पर वह किसी को दिखाई नहीं देता था, पर उसके अस्त्र-शस्त्र प्रहार कर देवों को घायल कर रहे थे। देवगण अपने अस्त्र चलाएं तो किस पर चलाएं, क्योंकि कोई शत्रु सामने था ही नहीं। कई दिनों तक इस तरह भयंकर युद्ध चला। शंखचूड़ पराजित नहीं हुआ। तब शिव ने विष्णु से कहा-“विष्णु ! कुछ उपाय करो, अन्यथा मेरा तो सारा यश मिट्टी में मिल जाएगा।”
विष्णु ने सोचा-‘बल से तो शंखचूड़ को हराया नहीं जा सकता, इसलिए छल का सहारा लेना होगा। उन्होंने तुरन्त अपना स्वरूप शंखचूड़ जैसा बनाया और अस्त्र-शस्त्र से सज्जित हो तुलसी के पास आए, बोले-“प्रिये ! मैं युद्ध जीत गया। सारे देवता भगवान शंकर समेत हार गए। इस ख़ुशी में आओ मैं तुम्हे अंक से लगा लूं।”
पति को प्रत्यक्ष खड़ा देख तथा विजय का समाचार सुन वह दौड़कर मायावी शंखचूड़ के गले से लिपट गई। इस प्रकार पति-पत्नी दोनों ने आलिंगन हो खूब ख़ुशी मनाई। पर-पुरुष के साथ इस प्रकार के व्यवहार से उसका सती-तेज नष्ट हो गया। उसका सती-तेज जो शंखचूड़ की कवच के रूप में रक्षा कर रहा था, वह कवच नष्ट हो गया। शंखचूड़ शक्तिहीन हो गया, यह जानते ही भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से प्रहार किया। त्रिशूल के लगते ही शंखचूड़ जलकर भस्म हो गया।
शंखचूड़ के मरने को जानकर विष्णु अपने असली स्वरूप में आ गए। सामने अपने पति शंखचूड़ के स्थान पर भगवान विष्णु को खड़ा देख तुलसी बहुत विस्मित हुई। उसको पता लग गया कि स्वयं नारायण ने उसके साथ छल किया है। क्रोध में आकर उसने शाप दिया-“एक सती स्त्री का सतीत्व भंग करने के अपराध में तुम ह्रदयहीन पत्थर हो जाओ।”
विष्णु ने तुलसी के शाप को शिरोधार्य कर कहा-“देवी ! तुम्हारे तथा शंखचूड़ के कल्याण के लिए मुझे ऐसा करना पड़ा। तुम दोनों को शापमुक्त करना था। तुम भी अब शरीर त्याग कर तुलसी बिरवा के रूप में जन्म लोगी और मेरी पूजा तुलसी दल से होगी। मैं शालग्राम पत्थर बनूंगा। मेरे शीश पर तुम आदर से विराजमान होओगी। तुम्हारे पति की हड्डियों के चूर्ण से शंख की उत्तपति होगी। उस शंख ध्वनि से देवताओं तथा मेरी पूजा-आराधना होगी। जहां शंख ध्वनि होगी, वहां मंगलमय मैं विराजमान रहूंगा। तुमने पूर्व जन्म में बदरीवन में मुझे पाने के लिए बड़ी तपस्या की थी। अब अगले जन्म में मैं नारायण प्रस्तर के रूप में बद्रीनाथ वन में स्थापित होऊंगा और मेरी पूजा अर्चना फल-फूल से न होकर तुम्हारे तुलसी दल से होगी। मेरे शीश पर विराजमान होकर तुम मुझसे भी ऊंचा पद प्राप्त करोगी।

सीता स्वयंवर में प्रभु राम द्वारा तोड़े गए शिव जी के धनुष का क्या था रहस्य ?


आप सभी रामायण के सीता माता के स्वयंवर प्रसंग से अवश्य ही अवगत होंगे, राजा जनक शिव जी के वंशज थे तथा शिव जी का धनुष उनके यहाँ रखा हुआ था। राजा जनक ने कहा था कि जो राजा उस धनुष की प्रत्यंचा को चढा देगा (संचालित कर देगा) उसे ही सीतामाता वरण करेगी ।

शिव जी का धनुष कोई साधारण धनुष नहीं था बल्कि उस काल का परमाण्विक मिसाइल(ब्रह्मास्त्र) छोड़ने का एक यंत्र था। रावण कि दृष्टि उस पर लगी थी और इसी कारण वह भी स्वयंवर में आया था। उसका विश्वास था कि वह शिव का अनन्य भक्त है, वह सीता को वरण करने में सफल होगा। जनक राज को भय था कि अगर यह रावण के हाथ लग गया तो सृष्टि का विनाश हो जायेगा, अतः इसका नष्ट हो जाना ही श्रेयस्कर होगा ।
उस चमत्कारिक धनुष के सञ्चालन कि विधि कुछ लोगों को ही ज्ञात थी, स्वयं जनक राज,माता सीता,आचार्य श्री परशुराम,आचार्य श्री विश्वामित्र ही उसके सञ्चालन विधि को जानते थे। आचार्य श्री विश्वमित्र ने उसके सञ्चालन की विधि प्रभु श्री राम को बताई तथा कुछ अज्ञात तथ्य को माता सीता ने श्री राम को वाटिका गमन के समय बताया। वह धनुष बहुत ही पुरातन था और प्रत्यंचा चढाते(सञ्चालन करते) ही टूट गया, आचार्य श्री परशुराम कुपित हुए कि श्री राम को सञ्चालन विधि नहीं आती है, पुनः आचार्य विश्वामित्र एवं लक्ष्मण के समझाने के बाद कि वह एक पुरातन यन्त्र था,संचालित करते ही टूट गया,आचार्य श्री परशुराम का क्रोध शांत हो गया।
साधारण धनुष नहीं था वह शिवजी का धनुष, उस ज़माने का आधुनिक परिष्कृत नियुक्लियर वेपन था। हमारे ऋषि मुनियों को तब चिंता हुई जब उन्होंने देखा की शिवजी के धनुष पर रावण जैसे लोगों की कुद्रष्टि लग गई है। जब इसपर विचार हुआ की इसका क्या किया जाये ?
अंत में निर्णय हुआ की आगे भी गलत हाथ में जाने के कारण इसका दुरूपयोग होने से भयंकर विनाश हो सकता है अतः इसको नष्ट करना ही सर्वथा उचित होगा। हमारे ऋषियों(तत्कालीन विज्ञानिक) ने खोजा तो पाया की कुछ पॉइंट्स ऐसे हैं जिनको विभिन्न एंगिल से अलग अलग दवाव देकर इसको नष्ट किया जा सकता है। और यह भी निर्णय हुआ की इसको सर्वसमाज के सन्मुख नष्ट किया जाये। अब इसके लिए आयोजन और नष्ट करने हेतू सही व्यक्ति चुनने का निर्णय देवर्षि विश्वामित्र को दिया गया, तब सीता स्वम्वर का आयोजन हुआ और प्रभु श्रीराम जी द्वारा वह नष्ट किया गया। बोलो महापुरुष श्रीरामचन्द्र महाराज की जय ……. भारतवर्ष की गौरवशाली गाथा संसार में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिये शेयर करें।

यह कहलाते है ज़िंदा भूत, मान्यता है कि इनके छूने से हो जाती है मौत


पश्चिम अफ्रीका का एक छोटा सा देश है, बेनिन। अफ्रीकी काले जादू वूडू की शुरुआत यहीं से हुई थी। बेनिन में इगुनगुन नाम की एक सीक्रेट सोसायटी है। इसके सदस्यों को ‘जिंदा भूत’ कहा जाता है।माना जाता है कि ये इगुनगुन किसी अन्य व्यक्ति को छू भी लें, तो वह व्यक्ति तो तत्काल मरेगा ही, इगुनगुन की भी मौत हो जाएगी।

इगुनगुन लबादा ओढ़ने के साथ ढेर सारे रंग-बिरंगे कपड़े भी पहनते हैं। ये अपने चेहरे को ढंके रहते हैं, ताकि इनकी पहचान छुपी रहे।इगुनगुन का मुख्य काम होता है, गांव वालों के आपसी विवादों में फैसला सुनाना। माना जाता है कि इन पर मृत पूर्वज ‘आते’ हैं और इनके माध्यम से अपनी राय देते हैं। इसलिए इगुनगुन का फैसला ईश्वर का संदेश और अंतिम माना जाता है।

किसी विवाद को सुलझाने के लिए एक से ज्यादा इगुनगुन बैठते हैं। ये बहुत ऊंचे स्वर और अस्पष्ट शब्दों में बोलते हैं।इगुनगुन के साथ कुछ माइंडर, यानी चेतावनी देने वाले लोग भी चलते हैं। ये भी उनकी सोसायटी के सदस्य होते हैं। उनके हाथों में छड़ी होती है। चूंकि माना जाता है कि इगुनगुन से टच हो जाने से भी व्यक्ति और इगुनगुन, दोनों की मौत हो जाती है, इसलिए ये माइंडर लोगों और इगुनगुन के बीच एक निश्चित दूरी बनाकर चलते हैं। यहां तक कि इगुनगुन कहीं बैठकर आराम भी करते हैं, तो माइंडर पहरा देते रहते हैं।

इनके ग्रुप के साथ ढोल-नगाड़े बजाने वाले लोग भी होते हैं। इगुनगुन ढोल की थाप पर डांस भी करते हैं।इगुनगुन कभी अपनी वास्तविक पहचान नहीं बताते। इगुनगुन के स्पर्श से मौत होने का डर इतने गहरे तक है कि लोग अनजाने में टच हो जाने पर भी दहशत में आ जाते हैं।